Monday, November 9, 2015

बुद्ध या बुद्धू

यक़ीनन महात्मा बुद्ध जैसा व्यक्तित्व विश्व इतिहास में गिने चुने हुए । किन्तु उनका होना वैसे ही है जैसे अँधों में कोई काना राजा हो। ज्ञान प्राप्त करने और सत्य को जानने की सनक एवं पागलपन कहीं और, किसी अन्य में देखने की बात वैसे ही है जैसे सूरज को दीपक दिखाने की। किन्तु नतीजे और परिणाम की बात हो तो वैसे ही है जैसे खोदा पहाड़ निकली चुहिया। घर-परिवार और समाज को छोड़कर ६ सालों के अथक प्रयास एवं ज़मीन-जंगल-जल की ख़ाक छानने के बाद आख़िरकार उन्हें मिला क्या? चार आर्य सत्य-संसार में दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निवारण और  दुःख निवारण के उपाय जिनमें से  एक ( दुःख का ) को छोड़ दिया जाय तो अन्य तीन पूर्णतः झूठ है। बुद्ध के जीवन पर्यन्त अथक प्रयास एवं उनकी उपल्बधियाँ वैसे ही हैं जैसे किसी बुद्धू का तूफ़ान में रेत का महल तैयार करने की बात। एक सत्य को जानने के लिए घर-परिवार का परित्याग करके एक सत्य के साथ तीन झूठ को सत्य मान लेना कहीं से भी बुद्धिमता की निशानी प्रतीत नहीं होती। जिस सत्य की तलाश में उन्हें अपना घर-परिवार छोड़ना पर उस सत्य को उनके साथ भी रहकर जाना जा सकता था। इतना ही इतना ही नहीं , इस तरह से जाना हुआ सच हरेक तरह से इन तीनों झूठ से मुक्त होता। जहाँ तक मेरे अभ्यास, अनुभवों और अनुभूतियों की बात है तो मैं देख रहा हूँ। … 

 - संसार में दूर-दूर तक कहीं भी दुःख नहीं दिख रहा। मैं देख रहा हूँ कि जो घटना या कारण किसी के लिए दुःख का कारण है तो वही किसी अन्य के लिए सुख का कारण जैसे- वर्षात किसानों के लिए लाभदायक है तो कुम्हारों के लिए नुक्सानदायक। दरअसल इस संसार में सुख-दुःख जैसी कोई चीज है ही नहीं । यदि दुःख सचमुच है तो एक दुःख हरेक के  लिए दुःख होता और एक सुख हरेक के लिए सुख होता। किन्तु हकीकत के धरातल पर ऐसा कतई नहीं होता। दरअसल सुख या या दुःख बाह्य वातावरण के प्रति मन की प्रतिक्रिया मात्र है, यह हमारी मानसिक अवस्था मात्र है। 

-  एक 'दुःख का कारण' ही है जिससे दुःख, दुःख का निवारण और दुःख निवारण के उपाय दीखता है। निश्चय ही दुःख की कारण हमारी  तृष्णाएं (जैसा की बुद्ध ने कहा ) हैं जिनके हमारे अनुरूप न होने से हमें दुःख होता है ।

- जब संसार में दुःख है ही नहीं तो उसके निवारण सम्भव ही नहीं है।

- जब दुःख एवं उसका निवारण है ही नहीं तो दुःख निवारण के मार्ग की बात करना एक बेईमानी और छल के सिवाय कुछ नहीं।

महात्मा बुद्ध का यही भ्रम और बुद्धूपन उन्हें कभी सामाजिक-धार्मिक दुर्व्यवस्थाओं  तो कभी अपने अनुआयियों के आपसी कलह में फँसाएं रखा। जबकि समस्या तो उनका मन (तृष्णा ) था।  वे व्यक्ति, परिवार, समाज से तो भाग गए किन्तु खुद से भागकर कहाँ जाते। वे जहाँ गए वहॉँ एक नए व्यक्ति, परिवार और समाज का सामना करना पड़ा । आख़िरकार जीवन यापन के लिए व्यक्ति, परिवार और समाज को किसी न किसी  रूप में स्वीकार तो करना ही पड़ेगा। भले ही वह अपने ही शर्तों पर क्यों न हो? समस्या तब भी बाह्य नहीं होगी। समस्या तो अब भी आंतरिक है और हमेशा रहेगी क्योंकि हम दुनिया से तो भाग सकते हैं किन्तु खुद से भागकर कहाँ जाएँ ?

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